* (राजनीतिक रणनीतिकार)*
आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सबसे पैनी नजर मध्य प्रदेश के चुनावों पर होगी। लगभग दो दशक से सत्ता सुख भोग रही बीजेपी के लिए यह चुनाव जीत-हार से अधिक मान-सम्मान से जुड़ा हुआ है। यूं तो करीब डेढ़ साल शासन के बाद 2020 में एमपी के जनादेश को दरकिनार करते हुए, भारतीय जनता पार्टी ने, ज्योतिरादित्य सिंधिया के भरोसे कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था, लेकिन बाद में शुरू हुई अंतरकलह से पार्टी अब तक नहीं उबर पाई है। दूसरी ओर राजनीतिक गलियों और ओपिनियन पोल से लेकर आम जनता के बीच, भले वे बीजेपी सपोर्टर ही क्यों न हों, कहीं न कहीं ये मैसेज घूम रहा है कि मामा शिवराज के साथ बीजेपी इस बार राज पाट से बेदखल हो जाएगी। लेकिन तो क्या फिर कांग्रेस एकतरफा चुनाव जीतने में सफल हो पाएगी? शायद नहीं, ऐसा इसलिए क्योंकि इंडिया गठबंधन के उदयनिधि द्वारा सनातन धर्म पर दिए बयान ने, भाजपा की बनाई हिंदुत्व की पिच पर, हनुमान भक्त की छवि के साथ खेल रहे कमलनाथ के साथ-साथ कांग्रेस को भी असहज कर दिया है। जिसका परिणाम एक अक्टूबर को भोपाल में होने वाली इंडिया गठबंधन की रैली को स्थगित करने के रूप में देखने को मिला है। जाहिर है, प्रदेश में बीजेपी की सालों की जमीनी पकड़ और विपक्ष की तिल जैसी गलती को तार बनाने की कला, कांग्रेस की राह आसान नहीं होने देगी।
सिलसिलेवार ढंग से देखें तो मध्य प्रदेश बीजेपी में पड़ी अंदरूनी फूट के कुछ प्रमुख कारणों में सिंधिया खेमे के विधायक भी हैं। जाहिर तौर पर उन 22 सीटों पर खींच तान बनी हुई है, जिसमें डबरा जैसी वो सीटें भी शामिल हैं जहां से इमरती देवी कांग्रेस के टिकट पर तो जीतती आईं लेकिन बीजेपी में शामिल होते ही कुर्सी से बेदखल हो गईं। इन 22 सीटों पर बागी विधायकों और सालों से टिकट की तपस्या में लगे पुराने उम्मीदवारों के बीच टकराव भी बीजेपी के लिए चुनौती है। ऐसे में पांढुरना या कुक्षि जैसी 16 सीटें, जहां बीजेपी 2013 और 18 दोनों विधानसभाओं में हार का स्वाद चखने पर मजबूर रही है, वहां मतदाताओं का भरोसा भी पार्टी के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। इसके अतिरिक्त उम्मीदवारों की जारी पहली दूसरी सूची ने जो एंटी इनकंबेंसी का माहौल बनाया है, उसे भी लगातार पाटते रहना, बीजेपी के लिए बड़ा सिरदर्द होने वाला है। मोटा मोटी देखें तो धार, ग्वालियर, शिवपुरी, अनूपपुर, झाबुआ, खरगोन, छिंदवाड़ा या बालाघाट जैसे जिलों में कांग्रेस का पलड़ा भारी नजर आता है, लेकिन जब हम सतना, रीवा, हरदा, होशंगाबाद, इंदौर, देवास जैसे जिलों में देखते हैं तो बीजेपी एक कदम आगे खड़ी नजर आती है। ऐसे में ये कहना उचित नहीं होगा कि बीजेपी या कांग्रेस, दोनों में कोई भी एकतरफा प्रतिफल प्राप्त करने में सफल होगा।
जब हमारे लिए ये समझना आसान हो जाता है कि दोनों ही प्रमुख दलों का खुद के बूते सारा संघर्ष ज़ाया भी जा सकता है, ऐसे में सबसे सही उपाय सहयोगियों को साथ लाना ही नजर आता है। कांग्रेस ने इंडिया गठबंधन की रैली के साथ इसका संकेत भी दिया है लेकिन बीजेपी के लिए भी जरुरी है कि एनडीए के अन्य घटक दलों, खासकर उत्तर प्रदेश सरकार में सहयोगी अपना दल (एस), जो वर्तमान में बहुजन समाज पार्टी का विकल्प बनती दिख रही है और उत्तर प्रदेश के साथ-साथ मध्य प्रदेश के कुर्मी पटेल समाज समेत दलित आदिवासी वर्ग में अपना विशेष महत्व रखती है, जैसे दलों को प्रदेश के इस प्रमुख चुनावी रण में भागीदार बनाना चाहिए। दूसरी ओर कांग्रेस यदि इंडिया गठबंधन में समाजवादी पार्टी या एनसीपी जैसे दलों के साथ गठबंधन में कुछ सीटों का बंटवारा करती है तो निश्चित तौर पर सकारात्मक परिणाम मिलने की उम्मीद है। क्योंकि फिलहाल कमलनाथ की मेहनत, मीडिया से नोंक झोंक और गठबंधन के बेमतलब बयानों में बहते दिख रही हैं। जन आक्रोश यात्रा में भी जनता से अधिक पार्टी कार्यकर्ताओं का आक्रोश देखने को मिल रहा हैं। लगभग यही हाल बीजेपी की जन आशीर्वाद यात्रा का भी रहा है, जहां जनता से अधिक अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री आशीष देते दिखें हैं। दोनों ही दलों के लिए यदि हाल फिलहाल की गतिविधियों की समीक्षा की जाए तो, मध्य प्रदेश की जनता का एकतरफा मत किसी एक दल के पास जाता नहीं नजर आता, ऐसे में सहयोगियों का साथ लेना ही सबसे उचित कदम समझा जा सकता है।
कुल मिलाकर देखें तो मध्य प्रदेश की 230 विधानसभाओं में कुछ सीटों पर मतदाता सिर्फ पार्टी और चुनाव चिन्ह ही देखता है, उनके लिए कैंडिडेट बहुत अधिक मायने नहीं रखता, जबकि कुछ विधानसभाओं पर मतदान व्यक्ति विशेष और वर्चस्व के आधार पर ही होते हैं। ऐसे में बहुत संभावनाएं हैं कि कांग्रेस के लिए इंडिया और बीजेपी के लिए एनडीए का साथ, अंदर ही अंदर पनप रहे असंतोष को संतोष में परिवर्तित करने में सफल हो सके।